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Friday, April 20, 2007

अक्स

सपनों की नर्म परछाइयों से फिर तुम्हारा अक्स निकला
धुँधला धूमिल धुला हुआ सा फिर तुम्हारा अक्स निकला

पास आता है मेरे, फिर दूर क्यों रह जाता है?
नर्म रुई की तरह हाथों मे चूर क्यो रह जाता है?

कच्ची गुनगुनी धूप सा सर्द मन को गर्माता है
सरदी की ओस मे सना हुआ सा चाँद बन के भरमाता है
तुम्हारा वही अक्स, जो हाथों मे चूर सा रह जाता है॥

गर्म अंगार है वो आग है वो राख है
बिन तेरे अक्स के मेरा वजूद खाक है
बना हुआ है मगर, मेरा वजूद मिटता नहीं
बिन तेरे अक्स के कहीँ और ये टिकता नहीं

आज फिर सपनों से वो अक्स निकल आया है
बहती हवा मे नर्म पंख सा उड़ता हुआ आया है
आज हवा भी तेरी पहचान से तर है
बस मैं ही हूँ जो तुझ से बेखबर है

तेरे उस अक्स से... जो रोज़ मेरे ख्वाबों मे आता है..

1 comment:

Ravish said...

really a brilliant one..!!!
I wonder if u have just put them in ur blogspot or have send it ur friends..