सपनों की नर्म परछाइयों से फिर तुम्हारा अक्स निकला
धुँधला धूमिल धुला हुआ सा फिर तुम्हारा अक्स निकला
पास आता है मेरे, फिर दूर क्यों रह जाता है?
नर्म रुई की तरह हाथों मे चूर क्यो रह जाता है?
कच्ची गुनगुनी धूप सा सर्द मन को गर्माता है
सरदी की ओस मे सना हुआ सा चाँद बन के भरमाता है
तुम्हारा वही अक्स, जो हाथों मे चूर सा रह जाता है॥
गर्म अंगार है वो आग है वो राख है
बिन तेरे अक्स के मेरा वजूद खाक है
बना हुआ है मगर, मेरा वजूद मिटता नहीं
बिन तेरे अक्स के कहीँ और ये टिकता नहीं
आज फिर सपनों से वो अक्स निकल आया है
बहती हवा मे नर्म पंख सा उड़ता हुआ आया है
आज हवा भी तेरी पहचान से तर है
बस मैं ही हूँ जो तुझ से बेखबर है
तेरे उस अक्स से... जो रोज़ मेरे ख्वाबों मे आता है..
1 comment:
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