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Friday, September 12, 2014

माँ

सुबह सुबह जब धूप सलोनी
आँख से नींद उड़ा जाती है
मंद चल रही हवा प्यार से
बालों को सहला जाती है
लगता है जैसे ये सब, करती हैं
जो तुम करवाती हो

माँ, इतना क्यों याद आती हो?

राह चलूँ तो कभी कभी
नन्ही सी बछिया दिख जाती है
कभी दौड़ती यहां वहाँ और
कभी बिदक माँ तक जाती है
नन्ही बछिया- गाय के जोड़े
में भी तुम दिख ही जाती हो

माँ, इतना क्यों याद आती हो?

कभी कभी तिनके बटोरते
पंछी ध्यान खींच लेते हैं
टुकड़ा टुकड़ा नीड जोड़कर
दुनिया नयी बसा लेते हैं
घर उनके, पर वहाँ बसाई
तेरी गृहस्थी दिख जाती हो

माँ, इतना क्यों याद आती हो?

कभी सुनाई देते हैं स्वर
मीठी सी प्यारी लोरी के
सुनकर सो जाए बच्चा
बंधकर फिर सपनो की डोरी से
इस लोरी के स्वर में अपने
 गीत मधुर से पिरो जाती हो

माँ, इतना क्यों याद आती हो?


2 comments:

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

विविध जीवन स्‍तरीय संवेदनाओं की मां के प्‍यार से तुलना कर लिखी गई कविता बहुत सुन्‍दर है।

इन लाइनों का तारतम्‍य कुछ ठीक किया जा सकता है---
घर उनके, पर वहाँ बसाई
तेरी गृहस्थी दिख जाती हो

Jaya Jha said...

मेरी बेटी....कितनी भी बड़ी हो गई हो आज, पर आँखों के सामने इस कविता के आते ही वही नवजात नन्ही बिटिया आ कर खड़ी हो गई..। इतनी संवेदनशील रचना तो नानाजी और बड़े मामा से विरासत में मिले गुणों के कारण ही हो सकती है। बहुत बहुत बधाई ऐसे लेखन के लिए। लिखती रहना।