रेस्टरां में घुसने से पहले अनायास ही मेरी आँखें चारों तरफ घूम गयीं. ऐसे चोरी छिपे आने जाने की आदत नहीं रही न कभी. पर आज जब उसका मैसेज देखा तो रह भी तो नहीं सकी. जिस रिश्ते का कोई नाम नहीं, उस रिश्ते की रौशनी में उसे एक आखिरी बार देखने का लोभ मैं सम्हाल नहीं सकी. कल से तो दुनिया रिश्ते, सब बदल ही रहे हैं. शादी है मेरी…
"हेलो,.... एक बार मिलने आ सकोगी आज शाम? मैं इंतज़ार करूँगा....... " और इस रेस्टरां का नाम. मैं भला कैसे ना आती. वो सबसे अच्छा दोस्त है मेरा. ना जाने कितने सुख दुःख, कितने सपने, कितने डर, सब बांटे हैं उस से गुज़रे सालों मे. बस, यही कारण आज मुझे इस तरह यहां ले आया. शाम के ढलते सूरज की रौशनी में बैठा हुआ जब वो दिखा, तो सब उधेड़बुन मन से छू हो गयी.
हाँ, एक कॉफ़ी तो बनती है.
जाने कैसे उसे आभास हुआ मेरे आ जाने का, पर अचानक मेनू नीचे रखकर उसने मेरी ओर देखा, और वही थोड़ी सी हँसी उसके होंठो पर तैर गयी. "मतलब लेट आना छोड़ नहीं सकते लोग!"
"हाँ तो ये कोई तरीका है मिलने का.… घर आ जाते, भला कोई रोकता थोड़ी घर आने से." मैंने भी बैठते हुए फिकरा कस ही दिया
"हाँ हाँ, कोई नहीं मैडम जी. चाय लेंगी या कॉफ़ी?"
"वो सब छोड़िये सर जी, ऐसे अचानक क्यों बुलाया?"
अचानक गंभीर हो गया वो. "मैं सोच रहा था, कल से सब बदल जायेगा, एक नया रिश्ता होगा सम्हालने को.… अब कहाँ आप ऐसे कॉफ़ी पीने मिलेंगी हमसे"
बात तो सही थी. मन में शादी की ख़ुशी थी, पर एक कसक भी उठी, कितना सब बदल जाएगा. पर मैं जानती थी, ये तो होना ही था, रिश्ते भी समय के साथ यूँ ही बनते बिगड़ते बदलते हैं. यही तो है जीवन.
बातों और यादों में कब कॉफ़ी का प्याला खाली हुआ, पता भी नहीं चला. अचानक एक चुप्पी सी छा गयी.… मानो हम दोनों ने स्वीकार कर लिया, कि अब आगे बढ़ने का समय हो चुका था
"ये सही हो रहा है ना? हमारे बीच कुछ बदलेगा तो नहीं?" अचानक मेरे मुह से निकल ही गया
जाते जाते पलट के देखा था उसने "मैडम जी,.... बदलना तो था ही, अब घर जाइये और आराम कीजिए. मैंने आपसे प्रॉमिस किया था कभी, कि आपकी शादी के पहले एक कप कॉफ़ी पीने ज़रूर बुलाऊँगा, याद है?"
"हे भगवान, उस कारण से बुलाया? मैं तो डर गयी थी कि आप कहेंगे 'ये शादी नहीं हो सकती,…मेरा मन बदल गया है'.... "
"पागल हो? जाओ अब, और कल मंडप में मिलेंगे मेरी दुल्हन" फिर वही हंसी, और वो चला गया
एक हंसी निकल ही गयी मेरी. हाँ रिश्ता बदल तो रहा है. हलके कदमों से मैं भी निकल गयी घर के लिए.…
"हेलो,.... एक बार मिलने आ सकोगी आज शाम? मैं इंतज़ार करूँगा....... " और इस रेस्टरां का नाम. मैं भला कैसे ना आती. वो सबसे अच्छा दोस्त है मेरा. ना जाने कितने सुख दुःख, कितने सपने, कितने डर, सब बांटे हैं उस से गुज़रे सालों मे. बस, यही कारण आज मुझे इस तरह यहां ले आया. शाम के ढलते सूरज की रौशनी में बैठा हुआ जब वो दिखा, तो सब उधेड़बुन मन से छू हो गयी.
हाँ, एक कॉफ़ी तो बनती है.
जाने कैसे उसे आभास हुआ मेरे आ जाने का, पर अचानक मेनू नीचे रखकर उसने मेरी ओर देखा, और वही थोड़ी सी हँसी उसके होंठो पर तैर गयी. "मतलब लेट आना छोड़ नहीं सकते लोग!"
"हाँ तो ये कोई तरीका है मिलने का.… घर आ जाते, भला कोई रोकता थोड़ी घर आने से." मैंने भी बैठते हुए फिकरा कस ही दिया
"हाँ हाँ, कोई नहीं मैडम जी. चाय लेंगी या कॉफ़ी?"
"वो सब छोड़िये सर जी, ऐसे अचानक क्यों बुलाया?"
अचानक गंभीर हो गया वो. "मैं सोच रहा था, कल से सब बदल जायेगा, एक नया रिश्ता होगा सम्हालने को.… अब कहाँ आप ऐसे कॉफ़ी पीने मिलेंगी हमसे"
बात तो सही थी. मन में शादी की ख़ुशी थी, पर एक कसक भी उठी, कितना सब बदल जाएगा. पर मैं जानती थी, ये तो होना ही था, रिश्ते भी समय के साथ यूँ ही बनते बिगड़ते बदलते हैं. यही तो है जीवन.
बातों और यादों में कब कॉफ़ी का प्याला खाली हुआ, पता भी नहीं चला. अचानक एक चुप्पी सी छा गयी.… मानो हम दोनों ने स्वीकार कर लिया, कि अब आगे बढ़ने का समय हो चुका था
"ये सही हो रहा है ना? हमारे बीच कुछ बदलेगा तो नहीं?" अचानक मेरे मुह से निकल ही गया
जाते जाते पलट के देखा था उसने "मैडम जी,.... बदलना तो था ही, अब घर जाइये और आराम कीजिए. मैंने आपसे प्रॉमिस किया था कभी, कि आपकी शादी के पहले एक कप कॉफ़ी पीने ज़रूर बुलाऊँगा, याद है?"
"हे भगवान, उस कारण से बुलाया? मैं तो डर गयी थी कि आप कहेंगे 'ये शादी नहीं हो सकती,…मेरा मन बदल गया है'.... "
"पागल हो? जाओ अब, और कल मंडप में मिलेंगे मेरी दुल्हन" फिर वही हंसी, और वो चला गया
एक हंसी निकल ही गयी मेरी. हाँ रिश्ता बदल तो रहा है. हलके कदमों से मैं भी निकल गयी घर के लिए.…
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