Followers

Wednesday, January 13, 2010

कच्ची धूप

कच्ची धूप गुनगुनी धूप
भोली सी अनमनी धूप
अम्बर से छन-छन के गिरती
करवटें सी बदलती धूप

पत्तों के तन से टकराती
हवा के झोंकों मे बलखाती
फूलों की पंखुड़ी चूम कर
गुलशन नए खिलाती धूप

कभी मेरे आँचल से छन कर
पलकों की चिलमन के नीचे
कभी नाच कर कभी उफ़न कर
सपने नए दिखाती धूप

नए समय का आवाहन बन
सुबह नयी फिर लाने वाली
टूटे थकित पथिक के रस्ते
सोना बन मिल जाने वाली
ऎसी अलबेली मस्तानी
धुली- धुली अधखिली धूप


अब भी क्या नव विहान के संग
स्वर कर्लव के लाती होगी?
छिप छिप कर जब धूप सलोनी
मेरे आँगन आती होगी?

3 comments:

Udan Tashtari said...

धूप री धूप!! सुन्दर!!

RAJNISH PARIHAR said...

बहुत ही अच्छा कच्ची धुप सा लिखा है आपने..!ब्लॉग परिवार में आपका स्वागत है...

श्यामल सुमन said...

भाव शब्द संयोग से रचना बनी अनूप।
दिखलाया है आपने कई रंग के धूप।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com