आज दिवाकर बैठा छुपकर ओट में काले बादल की
रूठ गया है गुमसुम सा है कुछ तो वजह है गुस्से की
पुरवा शायद आयी होगी, हँसती, करती मज़ा ठिठोली
कोहनी मारी सूरज को तब उसने पट से आँखें खोलीं
शायद अभी उनींदा है, खोये सपनों में भीगा है
शायद छुपकर बैठा फिर से सपने नए संजोता है
शायद पलके मूँद सजाता फिर से झालर सपनों की
शायद सूरज आया होगा सोनल रूप सजाया होगा
चार दिशाएँ घूम घूम पृथ्वी को प्रिया बुलाया होगा
शायद विश्वप्रिया उलझी जीवन के ताने बाने में
चूक गयी सूरज से मिलना चूकी उसे बुलाने में
शायद सूरज आहत है, हाँ , प्रिया के यूं ठुकराने से
तभी यूं चेहरा फेर के बैठा धरती और ज़माने से
रूठ गया है गुमसुम सा है कुछ तो वजह है गुस्से की
पुरवा शायद आयी होगी, हँसती, करती मज़ा ठिठोली
कोहनी मारी सूरज को तब उसने पट से आँखें खोलीं
शायद अभी उनींदा है, खोये सपनों में भीगा है
शायद छुपकर बैठा फिर से सपने नए संजोता है
शायद पलके मूँद सजाता फिर से झालर सपनों की
शायद सूरज आया होगा सोनल रूप सजाया होगा
चार दिशाएँ घूम घूम पृथ्वी को प्रिया बुलाया होगा
शायद विश्वप्रिया उलझी जीवन के ताने बाने में
चूक गयी सूरज से मिलना चूकी उसे बुलाने में
शायद सूरज आहत है, हाँ , प्रिया के यूं ठुकराने से
तभी यूं चेहरा फेर के बैठा धरती और ज़माने से
2 comments:
आहा आनंद-आनंद. दिनकर और मही का इस तरह वियोग हमारे लिए घोर अरिष्टकारी होगा. उम्मीद करता हूँ इनका सकल अभिसार शीघ्र हो :)
आपका कविता की दुनिया में लौट आना बहुत अच्छा लगा. इतनी ताखीर अच्छी नहीं :)
Kaash mahee shabd pahle soojha hota to kavita me laga lete :D
Thank you :)
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