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Monday, December 31, 2012

सिसक

"कितना अभिमान भरा है तुम में! बस बात का पतंगड़ बना देती हो। तुमसे तो सच में कुछ कहना  ही बेकार है!!"

इतना कह के बाहर निकल गया वो। मैं  वहीँ रह गयी, खिड़की की ग्रिल हाथ में भिंचती रह गयी। सच ही तो कहता है, मैं और मेरा अभिमान। कैसे समझाऊं की वक़्त की हर ठोकर झेलने में और फिर भी ज़िन्दगी से ना हारने में इस अभिमान के अलावा क्या था जो साथ देता।

जाने क्या हुआ मुझे जिसने ज़िन्दगी का हर वो विश्वास, हर वो आस्था हर वो सपना चुरा लिया जो शांति देता है। अब बस एक अशांत मन है, ऐसे समंदर जैसा जिसमे हमेशा तूफ़ान हो-- पर किनारा कहीं भी न दिखे---  याद हैं ऐसे दिन भी जब सहनशीलता के लिए लोग मुझे याद करते थे। जब हर कोई मेरे चेहरे पे रहने वाली मुस्कान की दाद देता था। अब सोचो तो यकीन नहीं होता कि लोग कभी मेरे संयम, मेरे स्नेहिल स्वभाव और ममता का उदाहरण मेरे सहपाठियों को देते थे। और हाँ----- मेरा जुझारूपन। किसी भी बात से हार कर कुंठित न होने की कला भी तो थी कभी मुझमे। क्या ऐसा सच में था? क्या मैं सच में ऐसी थी कभी? या सब झूठ कहते थे? देख सकते थे मेरे अंदर के इस पागलपन को, और मुझे मजबूत बनाने को, बहलाने को  झूठ कहते थे?

कितने दिन बीत गए-- कितने सारे दिन---- कुछ समझ नहीं आता--

अब पलट के देखो तो लगता है कि कोई मजाक था। मेरा पहला अस्तित्व एक मजाक था।अचानक से इस कमरे में सांस घुटती है। कहाँ जाऊं? अनायास ही पैर सीढियां चढ़ने लगे--- शायद पतित मन फिर से उठने की आखिरी कोशिश में था। पर आज हिम्मत कहाँ है। आज किसी बात की हिम्मत नहीं--- और हिम्मत बढाने वाला तो नाराज़ हो गया। अच्छा मजाक है न?

कहाँ जाऊं? कोई तो जगह होगी जहां लोग न मुझे देखें, न अपेक्षा करें, न मेरा हर पल आकलन करें---- आकलन से डर लगता है मुझे, ऐसा लगता है कि सब समझ जायेंगे मेरे अंदर पहले का कुछ नहीं बचा-- अजीब परेशानी है----- मैं तो बदल गयी, पर मुझे मापने के पैमाने वही हैं--- एक दिन लोग समझ जायेंगे कि मैं कोई और हूं- कोई ऐसी जिसमे न सहनशीलता है, न जुझारूपन, न ममता, न विश्वास न आस्था-- बस एक खोखला व्यक्तित्व। यहाँ बचने का बस एक रास्ता है, मेरा अटूट अभिमान।

अभिमान का नाटक मेरी हर बाकी कमी छिपा जाता है। कोई न जानता है न जानेगा कि मैं किस पीड़ा से ग्रसित हूँ। किस बात से डरी हूँ। और जब तक कोई नहीं जानता, मैं सुरक्षित हूँ--- कैसे छोड़  दूँ  अभिमान, जब वो मेरे मन और पूर्णतम पागलपन के बीच का छोटा सा फासला है। कोई समझता क्यों नहीं? वो क्यों नहीं समझता? वो क्यों समझे? क्या मैंने उसकी ज़िन्दगी अपने साथ बाँध कर सही किया? क्या मुझे इस ना समझ आने वाले शून्य के चक्कर में उसे भी बाँधने का हक था? कहाँ जाऊं जहां इन सवालों से बच सकूँ? कहाँ जाऊं जहां उसे खुद से बचा सकूँ?

मुह पे लगने वाली हवा अच्छी है। हवा आज़ाद है। दीवार पे बैठ कर हवा को पैरों की उँगलियों से निकलने दो -- हवा अपर चलने जैसा ही तो है। हवा जैसी आज़ादी। पर मैंने उसे आज़ाद नहीं रहने दिया। वो सही कहता है। वो सही कहता है। वो सही है। मैं गलत हु। गलत। मेरा होना भी गलत है। गलत।

और सभी जानते हैं गलत को सही बना देना चाहिए। हवा की आज़ादी सही है। बस आगे ही तो झुकना है, सब सही हो सकता है।

शायद इस एक सही काम से शांति मिल पाए?  

2 comments:

Udan Tashtari said...

मन की उथलपुथल..उम्दा लेखन!

Paridhi Jha said...

Thank you sir :)