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Wednesday, July 14, 2010

ओवर कोट

आज कई दिन बाद धूप निकली....... कई दिन की बारिश के बाद की कच्ची गीली धूप की बात ही कुछ अलग है.. खिड़की के पल्ले खोल कर कुछ देर इस तरह लंबी श्वासें ली कि मानो धूप का सोना आज अंदर समेट के ही मन मानेगा.

अनायास ही मन हुआ कि आज बंद कपड़ों को धूप दिखा दूँ.... जल्दी से कमरे में रखी अपनी पेटी खोली... सच कहूँ तो पेटी नहीं, भानुमति का पिटारा है बिलकुल. मेरे सब से अजीज़ कपड़े, कहानियां, चिट्ठियाँ, लेख, अधूरी कवितायें.. सब इसी पेटी में बंद हैं..

पेटी के गहराई से माँ की दी हुई एक चादर भी निकल आयी, ओह!! आज तो बस यही चादर बिछेगी... मुस्काते हुए जब इस प्यारी सी चादर को उठाया तो उंगलियां किसी और याद से अनजाने में टकरा गयीं..

सब से नीचे दबा हुआ एक ओवर कोट.. और उस से जुड़ी यादें.. उसकी यादें

नवम्बर के महीने की ठण्ड अलग ही थी इस बार..

मैंने धीरे से हथेलियाँ रगड़ी, और पूरी कोशिश की, कि मेरा कोट भूल कर आ जाना कहीं उसकी नज़र में ना आ जाए.. उस से मिलने की ललक में मै कोट भूल आयी थी.

"ठण्ड लग रही है?"

मैंने जब उसकी ओर देखा तो वही प्यारी सी मुस्कान रूबरू दिखी..

"हाँ" ( जब गलती की हो तो छोटे उत्तर देना ही गरिमामय होता है)

"ह्म्म्म, अच्छा ये पहन लो, सर्दी लग जायेगी"

"और तुम्हे हो गयी सर्दी तो? हीरो बन ने के चक्कर में?"

"नहीं होगी बाबा.. मुझे नेगटिव ताप मान में रहने की आदत है... पहन लो "

उसने अपना कोट उतार कर मुझे देना चाहा.. मना किया था मैंने, पर फिर ठण्ड जीत गयी..

ओर मेरा मन भी.. कोट से उसकी खुशबू जो आती थी..

"अच्छा... पर मै लौटा दूंगी अगली बार जब मिलोगे.."

"ठीक बाबा..... अरे रुको!!! "

कोट को तरतीब से बांधते हुए मेरे हाथ ठिठक गए.. ओह्हो... अगर उसने कहा कि वो मजाक में दे रहा था कोट सच में नहीं.. तो सच में आज.....

"क्या हुआ? वापस चाहिए न कोट?"

"नहीं.. पर कोट कि जेब से चाहिए कुछ"

"क्या?"

फिर वही बच्चो जैसी शरारती हंसी उसके अधरों पे तैर गयी

"सिगरेट मेरी.. वो तो तुम्हारे काम की होगी नहीं."

"ओह."

मैंने तुरंत उसकी बहुमूल्य अमानत लौटा दी. सिगरेट.

कोट के तमगे बांधना फिर से शुरू किया, तो एक बार अपने गाल से कोट को सहलाया.. न जाने क्यों इस कोट को हमेशा पास रखने का ख़याल आया.. एक अनिश्चित रिश्ते का ये एक निश्चित बंधन, ये कोट..

"ओए"

"क्या?"

"मै ये कोट तुम्हे कभी नहीं लौटाने वाली, समझे?"

"हम् ह्म्म्म"

"चाहिए होगा तो कह देना, दूसरा खरीद दूँगी तुम्हारे लिए"

"ठीक है बाबा.. अभी पहन लो.... हे राम ... कितना खर्चा करवाती हो मेरा.."

"उल्लू"

"उल्लू इन"............. "अब चलें?!!"

"हाँ"

उसकी खुशबू में घिरी हुई थी.. उस दिन मुझे ठण्ड नहीं लगी ....

ट्रिन ट्रिन ....!!!

घड़ी की आवाज़ से अचानक तन्द्रा टूटी... हाथ में अब भी वो कोट था.. अनायास ही हाथ उसे चेहरे तक ले आये..

ना.. अब इस से कोई खुशबू नहीं आती.. मृत रिश्ते कि खुशबू भला कभी बाकी बचती है क्या?

कोट की जेब में कुछ है....

एक नक्शा... उस देश के रेलवे रूट का जहाँ वो कुछ महीने पहले था ...

क्या करू?

बीते हुए खुशी के पलों की निशानी मान कर वापस रख दूँ इसे ?

या अनगिनत घंटों, दिनों, महीनों तक बहने वाले मेरे जिन आंसुओं को इस कोट की गिरहों ने सोखा था, उनके सम्मान में इसे हटा दूँ अपने पिटारे से?

अचानक खिडकी से बाहर देखा.. अब धूप मखमली कच्ची गीली नहीं है... दोपहर हो चली... अब धूप सच्चाई जितनी कड़ी है.. जलाने वाली..

सब सामान उठा कर जस का तस वापस रख दिया.. पेटी वापस बंद कर के बिछौने के नीचे सरका दी.. किसी और दिन...

काश यादों का पिटारा भी इतनी आसानी से बंद हो पाता...

6 comments:

ss said...

काश यादों का पिटारा भी इतनी आसानी से बंद हो पाता..

यादों का पिटारा नहीं होता यादों की टोकरी होती है जिसमे ताले नहीं लग सकते....टोकरी सर पर रखो और माजी को सस्ते में बेच आओ, कीमत मिले न मिले बोझ जरुर कम हो जायेगा.

Asha Joglekar said...

यादें ........ जितनी खुशी देती हैं उतना ही दुख भी । आपकी कहानी बांध कर रखती है ।

Amitesh said...

Good to read you after a long time.
वक़्त इसलिए लिया कि अच्छा लिख पाओ तो हम हमेशा इंतज़ार में रहेंगे अच्छा पढने के लिए. वृतांत पढ़ते पढ़ते अचानक एक सिहरन सी महसूस होने लगी... और अतीत कि कुछ यादें तीर आयी आँखों के सामने एक रुपहली तस्वीर कि तरह..
धन्यवाद् उन एकांकी यादों को वापस याद दिलाने के लिए...
अच्छी रचना.

आनन्द बन्का said...

yade ,

kehne ko ek doh akshar ka shabd
lekin socho toh aisey darohar
jiske bal par jindgi gujarne ka mada
rakhte hain hum.

Kunal said...

वाकई यादें कभी स्मृति पटल से नहीं हटतीं . खास कर जब उनके साथ कोई अपना जुड़ा रहे. एक अच्छी रचना , आपकी अगली रचना का इन्तजार रहेगा.

Nidhi Shukla said...

Very Touchy!